टाइफाइड के कारण ,लक्षण और घरेलू इलाज
रोग परिचय :-
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टाइफाइड के कारण :-
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टाइफाइड के लक्षण :-
1- रोग के कीड़े स्वस्थ शरीर में पहुँचने के 1-2 हफ्ते या कभी-कभी 3 सप्ताह बाद रोग के लक्षण प्रकट होते है। |
2- यह लगभग 50% 12 से 15 वर्ष वर्ष की आयु में लगभग 50% 25 से 30 वर्ष की आयु में हुआ करता है। यह मत आधुनिक चिकित्साशास्त्रियों का है। |
3- इसमें पहले दिन मामूली बुखार आता है। दूसरे या तीसरे दिन बुखार तेज 103-104° डिग्री तक हो जाता है और गर्दन, पीठ, छाती, पर लाल-लाल दाने निकल आते हैं। फिर लगभग 24 घन्टे के भीतर इन दानों में पानी भर आता है। पानी भरने से दाने मोती की भाँति चमकने (झलकने) लगते हैं, इसीलिए इस रोग को साधारण बोलचाल में “मोती झरा” कहते हैं। धीरे-धीरे दाने अच्छी तरह भर जाते हैं और सूख जाते हैं। अब बुखार भी कुछ मन्द पड़ जाता है। दानों में पानी सूखने के बाद उसकी पपड़ी उतर जाती है तथा शरीर पर गुलाबी रंग के निशान रह जाते हैं। यह रोग लगभग 3 सप्ताह तक रहता है। चौथे सप्ताह में रोगी की हालत में काफी सुधार हो जाता है। रोगी को भूख आदि लगने लगती है। |
4- इसकी प्रारम्भिक अवस्था में रोगी के शरीर में सुस्ती, कार्य करने की इच्छा-शक्ति में कमी, शारीरिक एवं मानसिक गड़बड़ी, कमजोरी, सिरदर्द, भूख न लगना, पतले दस्त आना, नाक से रक्तस्राव, कब्ज तथा उदरशूल आदि लक्षण होते हैं। |
5- यदि रोग पुनः (दुबारा) हो जाये, तो सात दिन का पहाड़ा पढ़ते हुए। कितने ही दिनों तक यह रह सकता है। |
6- एक बार इस बीमारी के हो जाने पर, फिर सारी जिन्दगी इस बीमारी के होने का डर नहीं रहता किन्तु आराम हो जाने के बाद कुछ दिनों तक फिर से दुबारा होने का डर रहता है। |
7- ज्वर का क्रमशः चढ़ना, ज्वर की अपेक्षा नाड़ी की गति मन्द होना, जीभ | ‘श्वेत’ एवं मलिन हो, उस पर लाल-लाल एवं कुछ उभरे हुए अंकुर आदि से इस रोग की पहिचान सरलता पूर्वक हो जाती है। |
8- यदि यह रोग गर्भवती स्त्री को हो जाये तो गर्भपात का खतरा रहता है। वैसे यह गर्भवती रत्री को तथा दूध पीते बच्चों को बहुत कम होता है। |
9- कभी-कभी मलेरिया और टायफाइड इकट्ठे भी हो जाया करते हैं। |
10- गर्म देशों में यह ज्वर अधिक हुआ करता है। ग्रीष्म ऋतु तथा पतझड़ के मौसम में यह रोग अधिक तीव्र रूप से हुआ करता है। |
टाइफाइड के घरेलू इलाज :-
हर प्रकार की बुखार की अचूक व रामबाण औषधि है :-
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1- बच्चों को मोती भस्म 15 से 30 मि.ग्रा. दिन में 2 बार मधु से चटाना अत्यन्त ही लाभप्रद है
2- महासुदर्शन चूर्ण (भै. र.) बच्चों को 1 से 2 ग्राम तक गरम जल से प्रत्येक 4-6 घंटे पर देना लाभकारी है ।
3- गिलोय का काढ़ा 1 तोला को आधा तोला शहद में मिलाकर दिन में 2-3 बार पिलाना लाभकारी है ।
5- मोथा, पित्त पापड़ा, मुलहठी, मुनक्का चारों को समभाग लेकर अष्टावशेष क्वाथ करें। इसे शहद डालकर पिलाने से ज्वर, दाह, भ्रम व वमन आदि नष्ट होते हैं।
6- अनबिंधे मोती 1 रत्ती, कस्तूरी 2 रत्ती, केशर कश्मीरी 3 रत्ती, जायफल 4 रत्ती, जावित्री 5 रत्ती, लवंग 6 रत्ती, तुलसी पत्र 7 रत्ती, अभ्रक भस्म 8 रत्ती सभी औषधियों को खरल करके अदरक के स्वरस में घोटकर गोली बनालें । इसे चौथाई से आधी रत्ती तक जल में घिसकर सेवन कराने से मन्थर ज्वर के दाने शीघ्र ही निकलकर ढारा ले जाते हैं तथा अन्य उपद्रव भी नहीं होते हैं । यह योग बड़े मूल्यवान अंग्रेजी औषधियों के भी कान काट देता है ।
7- नीम के बीज पीसकर 2-2 घंटे के बाद पिलाने से आन्त्रिक ज्वर उतर जाता है । यह योग मल निकालता है। शरीर में ताजा खून बनाता है, नयी शक्ति का संचार करता है । यदि मलेरिया बुखार से टायफाइड बना हो तो नीम जैसी औषधि के अतिरिक्त अन्य कोई सस्ता और सहज शर्तिया उपचार नहीं है ।
8- टायफाइड ज्वर के कारण उत्पन्न हुई कमजोरी में मधु का सेवन अंग्रेजी औषधि-हैप्टोग्लोबिन से भी अधिक लाभप्रद है
9- जीरे को जल के साथ महीन पीसकर 4-4 घंटे के अंतर से ओष्ठों (होंठ के किनारों पर लेप करने से ज्वर उतरने के पश्चात् ज्वरजन्य ओष्ठ-प्रकोप बुखार का मूतना) अर्थात् होठों का पकना व फूटना ठीक हो जाता है ।
10- जीरा सफेद 3 ग्राम 100 मि. ली. उबलते जल में डाल दें । इसे 15-20 मिनट के बाद छानकर थोड़ी शक्कर मिलाकर रोगी को दें। 10-15 दिनों तक निरन्तर प्रात:काल में पीने से ज्वर उतरने के पश्चात् आने वाली कमजोरी व अग्निमान्द्य नष्ट होकर भूख खुलकर लगने लगती है।
टाइफाइड के बाद सावधानी :-
1- पहले लक्षण दिखलायी देने के 8 सप्ताह तक रोगी को दूसरे स्वस्थ एवं निरोगी व्यक्तियों से अलग रखना चाहिए। |
2- रोगी के सम्पर्क में आने वालों को टीका लगवायें, दूध और पानी उबाल कर दें, कच्चे फल एवं शाक आदि न दें तथा रोगी द्वारा छुई हुई (पकड़ी या प्रयोग में लाई गई) प्रत्येक वस्तु का शुद्ध करना चाहिए। |
3- रोगी को पूर्ण विश्राम दें। 2-घूमने-फिरने न दें। |
4- रोगी के बिस्तर एवं कमरे में स्वच्छता बनाये रखें। विशेषतः रोगी का बिस्तर 1-1 दिन बाद बदलवा दें तथा रोगी द्वारा प्रयोग में लाया गया बिस्तर को पूरे दिन की धूप दिखला दें। रोगी के कमरे में सूर्य का प्रकाश (रोशनी) एवं शुद्ध वायु आनी जरूरी है। |
5- रोगी को अकेला न छोड़ें किन्तु उसके कमरे में अधिक भीड़-भाड़ भी न हो । |
6- रोगी के पेट, मल-मूत्र, पीठ, नाड़ी, तापमान तथा दिन में पिये जल की मात्रा का पूर्ण विवरण बनाये रखें। |
7- रोगी का मुख खूब अच्छी तरह कुल्ले करवाकर शुद्ध रखना चाहिए। |
8- मुँह आने और होंठ पकने पर ‘बोरो गिलेसरीन’ लगावें। रोगी की अन्तड़ियों का वायु से बहुत अधिक फूल जाना इस रोग का बुरा लक्षण है। |
9- तारपीन का तेल 5 मि.ली. सवा किलो गरम पानी में मिला कर इसमें फलालेन का कपड़ा (टुकड़ा) भिगो एवं निचोड़कर गद्दी बनाकर पेट पर बाँध दें। रोगी को आराम मिलेगा। |
10- दालचीनी का तेल 2-3 बूंद पेट फूलने, पेट में दर्द तथा पेट में वायु पैदा होने के लिए अत्यन्त लाभकारी है। |
11- केओलिन पाउडर (चीनी मिट्टी का पिसा छना बारीक चूर्ण) या एन्टी फ्लोजेस्टिन की गर्म-गर्म पुल्टिस पूरे पेट पर फैलाकर ढंक देने से भी पेट फूलने को आराम आ जाता है। |
12- घर के दरवाजे एवं खिड़कियाँ बन्द करवाकर रोगी का शरीर खौले हुए मामूली गर्म पानी से पोंछवा दें। अधिक दिनों तक लगातार शैय्या पर रहने के कारण रोगी को जो ‘शैय्या क्षत’ (बिस्तर के घाव) कमर, पीठ, कूल्हों आदि में हो जाते हैं, वे न होने पायें, इसका ध्यान रखें। |
टाइफाइड में क्या खाएं क्या न खाए :-
1- रोगी को तरल, पुष्टिकर, लघुपाकी, आहार जैसे गाय के दूध में ग्लूकोज मिलाकर दें।
2- पेट बहुत अधिक फूल जाने पर तथा समय से सही चिकित्सा न करने पर रक्त में विषैले प्रभाव फैल जाने या अन्तड़ियों में छेद हो जाने का डर उत्पन्न हो जाता है।ऐसी परिस्थिति में-कम मात्रा में भोजन खिलायें। 3-दही का मट्ठा पानी में घोलकर दूध के स्थान पर दें।
4- मीठे सेव का रस पिलायें।
5- दूध के स्थान पर दही का मट्ठा थोड़ी मात्रा में बार-बार पिलाते रहने से दस्तों में भी आराम आ जाता है।
6- तीन-चार बूंद दालचीनी का तेल’ ग्लूकोज आदि में मिलाकर रोगी को 2-2 घन्टे बाद खिलाते रहने से दस्तों की बदबू, पेट की वायु और कई दूसरे कष्ट दूर हो जाते है।
7- रोगी को रोग की प्रथमावस्था में सादा सुपाच्य भोजन दें।
8- यदि पतले दस्त न हों तो दूध दें।
9- अफारा हो तो ग्लूकोज दें।
10-रोगी को किसी भी कड़ी वस्तु का पथ्य न दें।
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हमारी परम्परा में एक कहावत है घर आये मेहमान व बुखार को भोजन न दें तो वो वापस चले जाते हैं
बुखार में क्या खाना चाहिए और क्या नही खाना चाहिए / परहेज :-
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ज्वर की प्रकृति को देखकर रोगी के भोजन में परिवर्तन कराना चाहिए।
✵ वात, कफ ज्वर में शीतल खाद्य-पदार्थों का सेवन नहीं कराएं। |
✵ पित्त ज्वर में पित्त की उत्पत्ति करने वाले खाद्य-पदार्थों से परहेज कराना आवश्यक होता है। |
✵ किसी भी ज्वर में रोगी को उपवास कराना चाहिए। उपवास करने से ज्वर का प्रकोप कम होता है। उपवास के दिनों में रोगी को फल रस दाल का पानी सुपाच्य हलवा खिलाने चाहिए। |
✵ उपवास के बाद रोगी को एक वर्ष के पुराने चावल, मुंनके किशमिश, ताजे अंगूर, परवल, चौलाई, बथुआ, मूंग की दाल, साबूदाने का पानी देना चाहिए। |
✵ वात, कफ ज्वर हो तो रोगी को संतरे व अनार का सेवन नहीं कराएं। शीतल जल भी पीने को न दें। |
✵ वात कफ ज्वर में हल्के उष्ण जल का सेवन कराएं। रोगी को एक साथ अधिक मात्रा में जल का सेवन नहीं कराएं। यदि रोगी को जल पीने से वमन होती हो तो पीपल की छाल जलाकर, जल में बुझाकर जल को छानकर थोड़ी-थोड़ी मात्रा में पिलाएं। |
✵ वात, कफ ज्वर से पीड़ित रोगी को शीतल वातावरण में नहीं जाने दें। ग्रीष्म ऋतु में भी एयर कंडीशन व कूलर की वायु से दूर रखें। |
✵ पित्त ज्वर से पीड़ित रोगी को धूप में घूमने-फिरने से रोकें। |
✵ रोगी को अधिक परिश्रम का काम नहीं करने दें। |